साल 1990 में दशहरे की छुट्टियों में कॉलेज बन्द होने के बाद लौट रहा था जहानाबाद से घर,एडमिशन के लिए गए थे और देशभर में मण्डल कमीशन पर जबरदस्त आंदोलनों के उस दौर में कॉलेज तो लगभग बन्द ही रहा, पर ट्यूशन शुरू हो गया था !आईएससी में स्वामी सहजानंद सरस्वती कॉलेज जहानाबाद में एडमिशन ले चुके थे जो एसएस कॉलेज जहानाबाद के नाम से प्रसिद्ध है !
सत्यानंद बस में बहुत भीड़ थी उसदिन, लेकिन मैं जहानाबाद से ही बस में बैठा था तो बायीं तरफ की खिड़की पर बैठ के बाहर के नजारे और चढ़ते उतरते मुसाफिरों को देखते हुए मेरा सफर जारी था !
ख्यालो की एक दुनिया चलती है मेरे मन मे हमेशा ही जब भी मैं ऐसे किसी सफर में होता हूँ जहाँ करने को कुछ खास न हो .. मुझे नही मालूम था यह सफर ऐतिहासिक होनेवाला है आज का .. चलते चलते बस अब इमामगंज बाजार में खड़ी थी और पहले की ही तरह उस समय भी बस में इमामगंज में अनेक मुसाफिर चढ़ और उतर रहे थे !
भीड़ का एक रेला यहाँ उतरा तो एक रेला और चढ़ भी गया .. बस खचाखच भरी थी,और पैर रखने की भी बस में जगह नही थी .. बस के सब स्टाफ परिचित थे मेरे, क्योंकि इसी बस से अक्सर आते जाते थे हम और यह बस जहाँ से खुलती थी वहाँ से बैठ के जहाँ तक जाती थी वहाँ तक जानेवाला मुसाफिर था मैं उस बस का .. उस बस के कंडक्टर महेंद्र बाबू मुझे बहुत मानते भी थे .. अपने बच्चे जैसा प्यार !
इमामगंज से बस में भीड़ के साथ एक नौजवान सवार हुआ था जो सबसे देखने मे थोड़ा अलग ही लग रहा था .. आंखों के लाल डोरे,फटा पाजामा जिससे तशरीफ़ तक बाहर झांक रही थी, जब जब हवा में कुर्ता उड़ता .. गन्दे मैले कुचैले और कई जगह से फ़टे कुर्ते में एक चमकदार चेहरे पर पसरी उदंडता ..वह अपने सम्पूर्ण वजूद से ही वहाँ एक विचित्रता उतपन्न कर रहा था,जो बड़ा ही कौतूहलपूर्ण दृश्य था !
थोड़ी थोड़ी देर में वह नौजवान बस के अन्य पैसेंजर की आंखों में देखता,और फिर दूसरी ओर घूरने लग पड़ता .. मैने उस तरफ से अब अपना ध्यान हटा लिया जब मुझे यह महसूस हुआ कि वह अपलक हमारी सीट पर हमारे तरफ ही देखे जा रहा था !
बस कंडक्टर महेंद्र बाबू से अब वह उलझा हुआ था और गन्तव्य तक पहुंचने के बाद एक रिश्तेदार से माँग के वह किराया देगा,उसके पास पैसा नहीं है अभी ,यह उनको समझा रहा था वह,जो बस कंडक्टर साहब समझने को राजी नही थे,क्योंकि जिसको वह अपना रिश्ते में बहनोई बता रहा था,वो तो मेरे खासमखास चाचा थे और उसकी अभी की फटीचर जैसी हालत और हैसियत देख के बस कंडक्टर को यकीन करना मुश्किल था उसपर, क्योंकि महेंद्र बाबू और उन चाचा जी का घर एक ही मोहल्ले में था ..!
अब जब किराया नही होने के कारण धक्के मार के उसको बस से उतारने की कवायद महेंद्र बाबू करनेवाले थे और बस रोकने को आवाज लगाने लगे तब मैंने उन्हें उसका किराया देने की पेशकश की, क्योंकि जिन चाचा जी का नाम वह ले रहा था तो झूठ हो तब भी मैं उन चाचा जी की प्रतिष्ठा आहत होते नही देख सकता था वहाँ,क्योंकि चाचाजी मुझसे बहुत प्यार करते थे और मैं आजतक उनकी इज्जत अपने पिता से भी ज्यादा करता आया हूँ तब से लेकर अब भी,जब आज वह इस दुनिया मे नही हैं ! वो एक सच्चे और वचन के बड़े दृढ इंसान थे और मुझपर अप्रतिम स्नेह था उनका आखिर तक ..!
जानबूझ के उनका नाम नही लूँगा मैं कहीं इस कहानी की श्रृंखला में,क्योंकि उनके नाम पर कहीं कोई छींटा उड़े किसी दूसरे के कारनामे से यह मैं कभी नही चाहता !
चलिए, वापस कहानी पर आइये, महेंद्र बाबू ने मुझे समझाया, यह कहके की बेटा जी,यह नमूना चार सौ बीस है .जिनका नाम ले रहा यह उनको कौन नही जानता ??
उनका साला होता तो पहनावा यह नही होता और फ़टे पाजामे के अंदर से यह देखिये इसकी चूतड़ नही दिख रही होती बाहर, यह कहते हुए उन्होंने उस नौजवान का कुर्ता उपर उठा दिया तो सबने देखा अब बेचारे की तशरीफ़ भरी बस में और जोरदार ठहाका लगा .. लंगटा है इ साला .. ई देखिये .. सिर्फ कहने को ही नही .. सच मे ही लंगटा है .. अभी उनके .. पाठक जी के साला होने का रिश्ता बता रहा है बेशरम ,और खुद को लगता है आईने में नहीं देखा है क्या कभी ??.. चल उनका साला तो हमारा भी साला .. साले की चूतड़ पर तबला बजाते हुए इसे ले चलेंगे अब वहां तक .. महेंद्र बाबू भरी बस में उसकी बेइज्जती किये जा रहे थे !!
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