सब कुछ अनित्य है……

Raj Rishi Bhairav

हमने जीवन को नित्य मान कर इस जगत को सत्य मान लिया। हमारी सारी उलझन मात्र इतनी सी है कि हमने स्वयं को कभी अनित्य नहीं समझा। हम सोचते है ये युवावस्था, धन, संपत्ति, आरोग्यता हमारे साथ सदा रहेगी। इस कारण हम भोग में लिप्त रहने लगे। इंद्री सुख, मन की संतुष्टि अनित्य है उसे हमने नित्य मान लिया। जीवन भर क्षण-क्षण के भोगों को भोगने के बाद भी हमारी भोग की इच्छा नहीं गयी। जिसे हमने भोग समझा वो स्वयं हमारा भोग कर लिया ये हमें कभी ज्ञात ही नहीं हो पाया।

राजा ययाति अपने वृद्धावस्था में अपने पुत्र पुरु को राज पाट सौप कर उसके युवावस्था को अपना लिया। पुरु वृद्ध हो गया, राजा ययाति युवा हो गए और सहस्त्र वर्षों तक उसने भोगों को भोगा किंतु उसे आत्म संतुष्टि न मिली। अंत में उसने पुरु को उसका युवावस्था सौप कर स्वयं वानप्रस्थ आश्रम का पालन कर सन्यासी बन गए और तप किये तब उसने अपने जीवनयात्रा के उल्लेख में लिखा–

भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः।
तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः।।
कालो न यातो वयमेव याताः।
तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ॥

अर्थात, हमने भोग नहीं भुगते, बल्कि भोगों ने ही हमें भुगता है; हमने तप नहीं किया, बल्कि हम स्वयं ही तप्त हो गये हैं; काल समाप्त नहीं हुआ हम ही समाप्त हो गये; तृष्णा जीर्ण नहीं हुई, पर हम ही जीर्ण हुए हैं !

ये समय, ये भोग, ये सौंदर्य, ये दुनियाँ सदा रहने वाली है। हम रहे न रहे लेकिन सौंदर्य की कमी नही रहने वाली। हमारी उम्र बीत जाए किंतु नये युवक के लिए नया यौवन तैयार हो जाता है। हमारी काल समाप्त हो जाती है पुनः नया काल प्रारंभ हो जाती है। तब तक हम भोग को भोगने लायक नहीं रह जाते है। भोग ही हमें भोग लेता है और हमारा समय सीमा समाप्त हो जाता है। निस्पृह, निस्प्राण हम गमन कर जाते है।

जो था वो बदल गया, जिसे आप नित्य मानते थे वो रह गया आप चले गए। जिसके लिए आप बंधन में बंधे थे वो बंधन आपके जाते के साथ टूट गयी। इस जगत के लिए आप स्मृति शेष रह गए। आपको अग्नि के सुपुर्द कर के राख कर दिया गया। आपको कांधा देकर श्मशान ले जाने वालों ने आपके वर्षों के जीवन यात्रा को समाप्त होते हुए देखा। आप भी अपने समय में कइयों को श्मशान ले जाते अनित्यता को महसूस किये किंतु जगत के नित्यता से बंध कर कभी अनित्य बोध को स्वीकार नहीं कर पाये।

नित्य का जो बंधन मरने के बाद छूट जाता है उसे हमने कभी जीते जी छोड़ना ही नहीं चाहा और जिसने जीते जी नित्यता के बोध का त्याग कर अनित्य भाव को आत्मसात किया, मृत्यु को स्मरणीय जान लिया वो इस जगत के भोगों से स्वतः ही दूर हो गया। वो ठहर गया दो माप के बीच में, उसने प्राप्त कर लिया उस अवस्था को जो जीवित रहते मृत्यु की ओर ले जाती है। वो अवधूत हो गया।

जय महाकाल

Raj Rishi Bhairav

लेखक

✍️ राजऋषि भैरव

( लेखक एक स्वतंत्र विचारक, आध्यात्मिक चिन्तक और उच्च कोटि के साधक हैं, जो बिहार सरकार में एक जिम्मेदार पद पर सेवारत हैं! – Ranjan Kumar )

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