तू एक लता है,
सहारे से दरख्तों पर सवार हो
ऊचांई पर अपनी
बेवजह इतराता है…
मैं बबूल का एक झाड़ ही सही,
फख्र है मुझे
खड़ा हूँ और जितना भी बढ़ा हूँ
खुद के दम पर !
उन सारी प्रतिकूल परिस्थितियों मे भी,
जहाँ एक पल भी तुम जी नही सकते
रेगिस्तान मे भी मैं खड़ा हूँ
बढ़ने की जिद पर अपने अबतक अड़ा हूँ!
तेरी तो फितरत मे है सहारा खोजना…
ऊँचाई पर अपनी
बेवजह इतराते हो,
परजीवी हो बेहतर है हद मे रहो !
किसी के गमले मे खिलो
महल की दीवारों के सहारे बढ़ो
मगर बबूल पर न हँसना
बबूल आखिर बबूल है !
तू हराम की पाकर हँसते हो बेवकूफ
रीढ़ की हड्डी तक नही तुममे खड़ा होने भर
खुद के दम पर अपने
तुलना तेरी बबूल से फिजूल है…फिजूल है !!
– रंजन कुमार