लेखक श्री राजऋषि भैरव बिहार के जमालपुर से हैं जो मुंगेर जिला में पड़ता है ! लोकप्रशासन विषय से स्नातक राजऋषि एक प्रगतिशील चिंतक विचारक और समाज सुधारक हैं ! राष्ट्र और राष्ट्रवाद लेखक की रगों में लहू के साथ साथ दौड़ता है और राष्ट्र को कलंकित करनेवाले हर मुद्दे पर बेबाक लेखन करने में लेखक सिद्धहस्त हैं ..आज इनकी कलम से निकली यह धारदार शानदार आलेख आपके बीच रख रहा हूँ लेखक की अनुमति लेकर जिसमे नालंदा विश्वविद्यालय को नष्ट करनेवाले बख्तियार खिलजी के नाम पर आज भी बिहार के एक शहर बख्तियारपुर के कलंकित इतिहास पर अपनी पीड़ा उकेरी है इस आलेख में ..
यूँ तो बख्तियारपुर का अर्थ भाग्यशाली गाँव होता है किंतु मध्यकालीन युग के शुरुआती दौर में ही बदनसीबी इसके दामन में आ गिरी।
बदनसीबी का कारण कुछ यों था कि पांचवी सदी के दूसरे दशक में मगध क्षेत्र में एक ऐसे विश्वविद्यालय का निर्माण शुरू हुआ जो जल्द ही ज्ञान, विज्ञान, ज्योतिष, धर्म , खगोलशास्त्र चिकित्सा, गणित, दर्शन शास्त्र, तर्कशास्त्र ,आयुर्वेद, सांख्यदर्शन के साथ-साथ सभी क्षेत्र के विषयों के अध्ययन केंद्र के रूप में विश्वप्रसिद्ध हो गया।
सम्राट कुमार गुप्त ने जो सोच कर इसकी स्थापना करवाई उसको मूर्त रूप देते हुए ये विश्वविद्यालय विश्व के प्रकाश केंद्र के रूप में स्थापित हो चुका था। देश विदेश के जिज्ञासु यहाँ आते और ज्ञानार्जन कर ज्ञान के प्रकाश पूरे विश्व में फैलाने को निकल पड़ते।
विश्वविद्यालय के निर्माण के तीन सदी बाद, एक ऐसे मजहब का उदय हुआ जो एक ही किताब के तले पूरी दुनियाँ को देखता था। यही ज्ञान उसके लिए सर्वमान्य थी और इसके अलावा उसे कुछ भी स्वीकारना प्रतिबंधित था।
अनेकानेक दर्शन, विचारधारा को स्वीकारने वाला ये देश पूरे विश्व के ज्ञान पिपासुओं को सत्य का साक्षात्कार इस विश्विद्यालय के माध्यम से 12 वीं सदी तक अनवरत कराता रहा किंतु 12 वीं सदी के अंत में ज्ञान शून्य व एक ही किताब को ज्ञान का अंतिम आधार मानने वाले मजहब ने ये सुना कि कोई ऐसा भी जगह है, जहाँ दस हज़ार पाण्डुलिपियाँ और लाखों हस्तलिखित पुस्तकें ज्ञान का सतत प्रवाह कर रही है तो ये उसे कैसे स्वीकार होता कि जिसे वो अंतिम सत्य और ज्ञान का एक मात्र पुस्तक मानते है उसके हटकर भी लाखों ज्ञान के पुस्तक है जिसके तले विश्व प्रकाशित हो रहा है और इन लाखों पुस्तकों को समेटनेवाला एक विश्वविद्यालय है जिसका नाम है नालंदा विश्वविद्यालय……!!!!!
Nalanda university |
नालंदा आर्थत सदैव ज्ञान देने वाली स्थली।।।।।
पृथ्वीराजचौहन पर विजय के साथ ही भारत का मार्ग एकल किताबी मान्यताओं वाले मजहब के लिए खुल गया और विजयी हुए मोहम्मद गौरी ने अपने सहायक तुर्क सेनापति इख़्तियारूद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी को नालंदा विश्वविद्यालय नष्ट करने हेतु भेज दिया।
बख्तियार खिलजी ऐसे ज्ञान के दीप को बुझाने निकल पड़ा जिसकी भरपाई सहस्त्रों वर्षों में नहीं की जा सकती थी किंतु एकल किताबी मान्यता के आगे जो ज्ञान था उसे नष्ट करने केतु वह बर्बर मजहबी लालायित था।
दस हज़ार विद्यार्थी दो हज़ार शिक्षक, जिसका ध्येय वाक्य ‘अहिंसा परमो धर्मः’ था, वो आने वाली विनाशकारी समय से अनभिज्ञ रत्नसागर, रत्नोदधि, रत्नरंजक नामक तीन पुस्तकालय (जो नौ तल के भवन में स्थापित था), में पांडुलिपियों का संग्रह करने में लगे थे। साथ ही ‘बुद्धम् शरणं गच्छामि’ मंत्र पाठ के शांत वातारण के मध्य विद्याध्ययन जारी थी।
उसी रोज बख्तियार खिलजी के घुड़सवार नर पिशाचों ने यहाँ आक्रमण कर दिया, बौद्ध भिक्षुओं का कत्ल कर दिया गया, विद्यार्थीओं को मौत के घाट उतार दिया गया। विद्या के केंद्र पर भारतीय इतिहास में यह पहला आक्रमण था।
कोई यह नहीं संमझ पाया कि आखिर विद्या के मंदिर को नष्ट क्यों किया जा रहा है। ज्ञान ही तो एकमात्र आधार है जिसके तले सभी प्रकाशित होते है फिर ये कैसी बर्बरता है जो विद्या के मंदिर को ही धुमिल करने पर तुले है।
आखों में आंसू लेकर भिक्षुओं ने याचना किये,”सारा धन यहाँ का ले जाओ किंतु इस विद्या संस्थान ने तुम्हार क्या बिगाड़ा है जो इसे नष्ट रहे हो।” सारे सिर को धर से अलग कर दिया गया। उस दिन लाल ईंट से बनी विश्विद्यालय रक्तिम लाल हो चुकी थी।
जब तक उन्हेँ समझ आता की आक्रमण क्यों हुआ है तब तक देर हो चुकी थी,बख्तियार खिलजी अपने एकल किताब की रौशनी से यहाँ के पुस्तकालय में आग लगा चुका था।
सहस्त्रों वर्ष की ज्ञान परंपराओं का संग्रह आज धू धू कर जल रहा था। साथ ही जल रही थी उस ज्ञान को खुद में समेटे बौद्ध भिक्षुकों के जीवित शरीर। जहां तक ये खबर गयी लोग विस्मित हुए। अब तक राज पाट हेतु युद्ध होते आये थे के कैसा युद्ध था जहां ज्ञान परंपरा को ही नष्ट कर दिया गया।
नष्ट हुए इस स्थान को मिला क्या??
तो मिला बख्तियार का नाम और इस क्षेत्र का नाम पड़ा बख्तियारपुर अर्थात भाग्यशाली गाँव। जिसके भाग्य के लकीरों को मिटा दिया गया और एक दंश सदियों तक के लिए सिर पर लाद दिया गया जो दुर्भाग्य को समेट कर भी स्वयं को बख्तियार कहने को मजबूर हो गए…
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भारतीय संस्कृति के स्वर्णिम काल को नाष्टकरने वाले बख्तियार खिलजी के नाम पर पड़ा इस शहर से जब भी मैं ट्रेन से गुजरता हूँ तो स्टेशन के नामपट्ट मुझे चिढ़ाते है,”देखो मैं बख्तियार हूँ आज भी तुम्हारे छाती पर सवार हूँ” इस पीड़ा को महसूस कर भींगी पलको को पोछ मैं यह सोचता हूँ,’क्यों दुर्भाग्य के निशानी को हम आज भी नहीं मिटा पा रहे है? “क्या सदियों सदियों तक ये पीड़ा सालती रहेगी?” पूछिये आप भी स्वयं से..!
Rajrishi Bhairav |
लेखक – राजऋषि भैरव
संकलन – रंजन कुमार