वादों के सिलसिले भी
बड़े लम्बे चले थें,
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माजी के पन्नों से
झलकती है
तेरी नजर उन
मांद होते पत्तों पर,
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जो शाख से रुखसत
के खौफ में हीं बूढ़े होते
चले गये..
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और जब इक दिन तुम
हो मुझसे नाराज,
खिड़की के सिरहाने
जो बैठी थी कॉफ़ी लेकर
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और वो पत्ता पीला पड़
चूका था,शाख से खो
जाने के डर से..
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आंधी भी चली थी जोर
की मुझे ख्याल है..
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और फिर बारिशों में
तुम्हारे आँसू भी शायद
छिप गये थे..
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उसी दिन बाद से
टूटने लगे वादे तेरे
कसमें भी फिर,
खाई नहीं गयीं!
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पर इक सवाल
अब भी दिल के
किसी वीरान कोने
में खटकता है..
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क्या वो मांद पीला
पत्ता,सच टूट गया
था,डाली से ??.
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जो तेरे वादे भी टूटे!!
– Vvk