मेरे प्रकाशित काव्य संकलन अनुगूँज संकलित प्रतिनिधि कविताएँ से संकलित ” उधेड़बुन जारी है ” –
Lots of Question Marks

चश्मे के अंदर से घूरती
उसकी दो दो आँखे,
अपलक लगातार ..!

मैं असहज होता हूँ
अंदर मन मे,
नाराज होता हूँ
पर वह 
तब भी देखती रहती है,
यूँ ही लगातार ..!
 
शरमाता हूँ झिझकता हूँ
और मन ही मन,
फिर बिदकता हूँ !
 
चश्में के भीतर से 
उसका यूँ देखना 
चुभता है लगातार ,
चाहता हूँ चली जाये सामने से
कभी न दिखे फिर…
पर मजबूरियाँ दोनो की
यूँ ही बैठना 
अपनी अपनी सीट पर..! 
 
दो बड़े बड़े काले मस्से हैं,
वह खुद को 
खूबसूरत समझती है बहुत
उनके होने से वहाँ चेहरे पर ,
ओर मुझे वही बदसूरती 
दिखती है उसकी ,
और फिर यूँ ताड़ते रहना ..!
 
दे दिया इस्तीफा उसे आज,
नही सहन कर पा रहे थे 
चश्मे के भीतर से झांकती आँखे
अपलक निहारना यूँ ..
और फिर बड़े बड़े 
वो दो मस्से भी,
जिसपर इतराती है वह ..!
 
कारण पूछा छोड़ने का
बॉस है आखिर ..
कह दिया सच जो था,
और ये भी कि ..
डर है मुझे, कहीं मैं
हिंसक रुख न अख्तियार कर लूं 
चिढ़ मे अपनी
और नोच डालूं 
मस्से ये तुम्हारे एक दिन !
 
स्वीकार नही हुआ है
अब भी इस्तीफा ,
और गया भी नहीं 
तबसे ऑफिस ..
देखा भी नहीं उसकी प्रतिक्रिया
उसके चेहरे पर
मेरे जवाब के बाद , 
सीधे घर चला आया..!
 
दुखद था यह कहना ,
नहीं सह पा रहे तेरी ये आँखे ..
यूँ देखती निगाहे,
और बदसूरत चेहरे पर 
यूँ मस्सों पर भी गुमान ..!
 
बज रही है तबसे घण्टी लगातार,
जरूरत है उसे मेरी
पर मुझे नहीं ! 
 
व्हाट्सऐप पर मेसेज किया उसने,
मस्सों का करवा लेगी ऑपरेशन ,
नहीं बैठेगी अब 
न्यूज एडिटिंग टेबल के सामने..
पर मैं लौट आउं ऑफिस वापस ..!
 
मुझे बदल नया स्टाफ न रख ,
वह खुद बदल रही है खुद को
जैसे मैं चाहूँ वैसे ..
और मेरी उधेड़बुन जारी है..
बॉस है वो मालकिन वहां की ..
मेरी बीबी नहीं !
तो फिर क्यो 
बदल रही खुद को 
मुझे क्यो नही बदला ..?
 
फोन अब भी बजता रहता है,
ऑफिस अब भी नही गया..
उधेड़बुन जारी है…
वो आँखे वो चश्मा और वो 
दो बड़े बड़े मस्से ..!!

– रंजन कुमार 

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