जब दरख्तों पर कभी
खडखडाहट होती है ,
फिर क्यों ठंढ से ठिठुरते
गोरैये याद आते हैं ..
याद आती हैं वो झुग्गियाँ भी ,
और फिर .
अनगिनत बेबस आँखे
सहमे सहमे से क्यों …?
बमुश्किल ही मनुष्य
कहे जा सकने वाले,
बिचरते कुछ चेहरे..
तमाम सड़कों पर शहर के ..
सुलगते सवाल सा क्यों ,
भावनाओ को झिंझोड़ जाते हैं,
ये अजनबी भी, वो गोरैये भी ..
अक्सर ही सर्द रातों में !!
– रंजन कुमार