मुसलसल हादसों का सिलसिला .. चलता रहा ,
बारिश होती रही,शाख से पत्ता-पत्ता टूटता रहा !
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लोग कुछ जों बैठें थे .. रौशिनी की फ़िराक में ,
सूरज को भी फर्क किआ, आखिर डूबता रहा !
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समंदर के किनारे बनते घरौंदें..बहा ले गयी लेहर ,
तब भी कोई ज़द पर फिर-फिर घरौंदें बनाता रहा !
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भीड़ का किआ है , मिलतें हैं – बिछड़ जातें हैं ,
सफर आखिर .. लिखा तन्हा था , चलता रहा !
– Vvk