पथरा गयीं आँखे
इस पथ को तकते तकते ,
तुम फिर नहीं आए कभी
यहाँ बरसों से !
तेरे वादों की पोटली थी
जो मेरी धरोहर है ,
गुम हुयी है यहीं कहीं
तलाश में अब तक हूँ !
मेरे लिए तो वक़्त ठहरा है वहीं
जहाँ पे हम बिछड़े थे ,
देखता रहता हूँ ,
दीवारें तक भी न क्यूँ महफूज रहीं !
नहीं सुनता कोई मेरी ,
मैं सबसे कहता हूँ ,
ये दौर कौन सा है
क्यों हर चेहरा ही अनजाना है ?
वक़्त आगे बढ़ गया क्या बहुत ज्यादा
मैं ठहरा रह गया इस बस्ती में ?
वो नाराज होंगे नहीं आते इधर ,
क्यों कोई पहचान वाला भी नहीं दिखता है ?
– रंजन कुमार