लो अब बहुत दूर हूँ तुमसे,
मुकम्मल सफ़र भी हुआ चाहता है ,
वक़्त का काफिला
जो चला साथ दूर कबका हुआ !
यादों की झुरमुटों के बीच कभी
तेरी स्मृतियाँ ,
कौंध जाती हैं रह रह कर ,
“कौन समझेगा जिसे समझाऊंगा “
आज तेरी बात सही लगती है !
ये तन्हाई भी हमराह है
जब साथ नहीं तुम मेरे ,
सत्य के सूरज को
अपने दम तक न डूबने दूँगा !
बढाओ हाथ तुम अपना
और अब मुझको थाम लो तुम,
थक गया हूँ
दे देकर गवाही सत्य की ,
चाँद को छुप जाने दो फिर आ जाना
लहुलुहान असत्य से हूँ ,
और यह सफ़र पूरा हुआ !
लो अब बहुत दूर हूँ तुमसे
मुकम्मल सफ़र भी हुआ चाहता है ,
वक़्त का काफिला
जो चला साथ , दूर कबका हुआ !
– रंजन कुमार