earthworm

कोई जलतरंग सा नहीं बजा 
मन में ,
हवाएं भी बहती नहीं दिखी 
और 
न ही चिडिओं ने कोई राग छेड़ा 
नयी सी,
जैसा की अक्सर देखता हूँ फिल्मों में..
पढता हूँ कहानिओं में !


हालांकि मौसम खुशनुमा था
जब वह मिला था फिर
बरसों बाद मुझे !


मेरे हाथ को हाथों में लेकर
कहा कुछ उसने ,
अपनापन दिखाते हुए..
जो मैंने सुना ही नहीं ,
क्योंकि 

अहसास अपनापन का,
नहीं था कहीं भी, उन हाथों में
जिनमे मेरे हाथ वह पकडे हुए था !


चला गया है अब वह
एक लिजलिजापन छोड़ ,
अपने पीछे !


और केंचुयें रेंगते हो जैसे
मेरे चारो ओर,

मेरे हाथों पर भी
यह अहसास बचा है हर तरफ !


मैं घिर गया हूँ रीढ़ हीन
रेंगते केंचुओं के बीच…

ओ रब्बा ..
ये कौन सी दुनिया है ?


और इनमे क्या
कभी कहीं कोई अपना भी था ?
रीढ़ हीनों से रीढ़ वालों का,
रिश्ता जीव शास्त्र ने बताया है कभी ?


रंजन कुमार 

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