कविश्रेष्ठ, कर्मयोगी, अप्रतिम नैतिकता के धनी, प्रांजल निश्छल भावों के भंडार, मित्रवर श्री रंजन कुमार जी की प्रतिनिधि कविताओं के संग्रह “अनुगूँज” को पढ़ना प्रारम्भ करने से पहले यह आश्वस्त होना आवश्यक है कि कई घंटों तक आपके पास कोई अन्य आवश्यक कार्य न हो | यह संग्रह आपको इसी दुनिया का एक विस्तृत चित्रपटल प्रस्तुत करता है किन्तु कुछ ऐसे ढंग से कि आप बार बार चौंक कर सोचने लगेंगे कि आप किसी अन्य दुनिया में पहुंचकर, वहां से अपनी दुनिया को देख रहे हैं | नौ वर्ष की बच्ची का कथानक और मृत्यु है उत्सव जैसी रचनाएँ आपको आत्मा की दिव्यता और अमरता पर सोचने को विवश करेंगे | दहेजहत्या प्रकरण एक ओर आपको मानव मस्तिष्क की विकृति की पराकाष्ठा तो दूसरी ओर उसकी विवश प्रतिक्रिया की पराकाष्ठा को दिखाते हुए , औचित्य- अनौचित्य की सीमाओं पर सोचने को बाध्य करेगा | गजल ,गीत , कथा , मुक्तक, तुकांत, अतुकांत — सभी कुछ है यहां, किन्तु भावातिरेक बाढ़ की लहरों द्वारा कूलों को तोड़ने की भाँति तमाम नियम बांधों को तोड़ते हुए | “प्रह्लाद का जन्म” , “हे राम”, “सावधान रहो बिटिया ” जैसी असंख्य रचनाएं समाज के अप्राक्रृत और विकृत चेहरों का दर्पण हैं | अक्षांश और देशांतर पर लिखी रचनाएं माननीय राजीव चतुर्वेदी की यादों से ओत प्रोत कर गयीं |
रक्त संबंधों के परम्परागत महत्त्व की भ्रामकता ,विषाक्तता और निरर्थकता का घोष अधिकांश रचनाओं में है , जो रचनाकार की केवल व्यक्तिगत पीड़ा न होकर , वर्तमान समाज में व्यापक रूप से फैल चुकी विकृतियों का वास्तविक दर्पण भी हैं |
हार्दिक आभार है श्री रंजन कुमार जी का जो उन्होंने न केवल अपनी पुस्तक में मुझे इतना सम्मान दिया जिसके योग्य मैं वस्तुतः नहीं हूँ , बल्कि पुस्तक का प्रकाशन होते ही , उसकी प्रति मुझे भेजी . रचनायें वैचारिक और भावनात्मक धरातल पर इतना अभिभूत कर गयीं कि एक एक रचना को कई कई बार पढ़ने पर विवश हो गया . बहुत कुछ लिखना चाहता हूँ , किन्तु शब्द सामर्थ्य सीमित है अतः रचनाकार की इन पंक्तियों से ही विराम करता हूँ :-
“रास्ते परिभाषित थे और सुवासित भी
और रिश्ते रिस रहे थे जख्म बनकर
तनहा चलना
और अपने रास्तों को चुन लिया आखिर
और कर दिया रिश्तों का तर्पण || “
अंत में रचनाकार को पुनः असंख्य बधाइयां |
— Kishore Nigam