ख़ुशी-औ-ग़म में जहां,
महसूस न हो फर्क,
वो जिंदगी है की,
कुछ और है साक़ी??..
की हमसफ़र से..साथ की चाहत,
उस हमनवा से फासला भी बेहद,
क्यों कुछ उम्मीद भी इतनी..
ना-उम्मीद है साक़ी?
की तेरे लौट आने की मिन्नतें,
दरगाह-हर-दरगाह..
की तेरे न लौटने का सितम,
भी कितना अजीब है साक़ी!
की ये चाँद भी आसमां
का कोई सेहबा है,
या खामोश बैठा
आफताब है साक़ी ?
की तेरी ही सूरत हर
चेहरा-दर-चेहरा,
तेरी दुआ है या करीब,
करीब कुर्बत है साक़ी??..
– Vvk